Skip to main content

राजन HERO or ZERO


राजन का हिसाब-किताब


(कपिल अग्रवाल )


देश के मीडिया और उद्योग जगत का एक वर्ग अयोग्य को योग्य और योग्य को अयोग्य सिद्ध करने की ताकत रखता है। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की बात हो या आगामी सितंबर माह में अपना कार्यकाल पूरा करने जा रहे भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन की-दोनों के ही मामलों में यह साफ नजर आता है। निरंतर दस साल तक राज करने के बावजूद मनमोहन सिंह न तो देश की अर्थव्यवस्था, महंगाई और बैंकों आदि की दशा सुधार पाए और न ही तीन साल में रघुराम राजन ने ऐसा कुछ करिश्मा किया कि उन्हें दूसरे कार्यकाल के लिए मनाया जाए। राजन यह जरूर कह रहे हैं कि बैंकों की खस्ताहालत के लिए उच्च ब्याज दरें नहीं, बल्कि खराब कर्जे यानी एनपीए जिम्मेदार है, पर यह स्वीकार नहीं करते कि इन पर लगाम कसने में वह खुद विफल रहे हैं। बैंकों की स्वच्छंदता पर अंकुश लगाने में भी वह असफल रहे हैं। मीडिया और उद्योग जगत के एक वर्ग में इनके कामकाज और योग्यता को नापने का पैमाना एक ही है कि शेयर बाजार चढ़ा या उतरा। 
सवाल यह है कि रिजर्व बैंक के गवर्नर की नियुक्ति शेयर बाजार को संभालने के लिए की जाती है या बैंकिंग व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त करने के लिए? मीडिया के एक वर्ग ने शेयर बाजार के आंकड़े तो खूब बढ़ा-चढ़ाकर दे दिए, पर यह नहीं बताया कि राजन के गवर्नर बनने के समय बैंकों की क्या स्थिति थी और अब छोड़ते वक्त क्या है। पूरे तीन साल मुद्रास्फीति और भारतीय मुद्रा की क्या हालत रही, इस पर भी किसी ने गौर करने की जरूरत नहीं महसूस की। वो तो भला हो कच्चे तेल की नरम कीमतों का, वरना क्या हालत होती बस कल्पना ही की जा सकती है। एक वर्ग ने यह प्रचार कर रखा है कि राजन की वजह से देश की अर्थव्यवस्था निरंतर तरक्की पर है, जीडीपी में सुधार है और निवेश प्रस्तावों की निरंतर बरसात हो रही है। वे बैंकों की अत्यंत दयनीय स्थिति, डूबते कर्जो, सरकारी कंपनियों की हालत, वास्तविक निवेश और मुद्रास्फीति आदि मुद्दों को गोल कर जाते हैं। 
उद्योग जगत के फायदे के लिए नीतिगत ब्याज दरों में कटौती की परिपाटी दशकों से चली आ रही है, पर इससे न केवल आम जनता, बल्कि स्वयं सरकार और बैंकों को हर साल कई खरब रुपये का नुकसान ङोलना पड़ता है। दरअसल राजन के कामकाज से बैंकिंग जगत और वित्त मंत्रलय संतुष्ट नहीं थे, क्योंकि बैंकों की वास्तविक स्थिति को उजागर करने के पक्ष में राजन नहीं थे। भारतीय अर्थव्यवस्था तथा बैंकिग जगत और आइएमएफ के कामकाज, उद्देश्यों, लक्ष्यों आदि में जमीन आसमान का फर्क है। शायद इसीलिए राजन वह सब नहीं कर पाए, जिसके लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी सरकार के वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने उन्हें गवर्नर बनाया था। हकीकत में बैंकों की काली करतूतों का पर्दाफाश जनहित याचिकाओं और देश की सर्वोच्च अदालत के सख्त रुख के चलते हुआ है, न कि आरबीआइ गवर्नर की बदौलत। खुद रिजर्व बैंक ने अपनी लगातार दो सालाना रिपोर्टो में यह स्वीकार किया है कि बैंकों के डूबते कर्जे चिंताजनक स्थिति में पहुंच चुके हैं।
यह मान लेना ठीक नहीं है कि राजन के बिना भारतीय उद्योग जगत और रिजर्व बैंक नहीं चल पाएगा। बदहाल बैंकिंग जगत को इस समय एक ऐसे मुखिया की जरूरत है जो भारतीय परिवेश में ढला हो, भारतीय अर्थव्यवस्था का जानकार हो और बैंकिंग जगत से ही ताल्लुक रखता हो। सबसे बड़ी बात यह कि उसे शेयर बाजारों को चमकाने से ज्यादा रुचि बैंकिंग जगत का उद्धार करने में हो और वह भी बगैर सरकारी मदद के।1(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं | 

*******

Comments

Popular posts from this blog

Statue Of Unity

2019 polls helped break walls, connected hearts: PM Narendra Modi https://www.dnaindia.com/india/report-2019-polls-helped-break-walls-connected-hearts-pm-narendra-modi-2753725 via NaMo App